मंदिर का इतिहास
सीकर के रुल्याणी ग्राम के निवासी पं. लछीरामजी पाटोदिया के सबसे छोटे पुत्र मोहनदास बचपन से ही संत प्रवृत्ति के थे। सतसंग और पूजन-अर्चन में शुरू से ही उनका मन रमता था। उनके जन्म के समय ही ज्योतिषियों ने भविष्यवाणी की थी कि आगे चलकर यह बालक तेजस्वी संत बनेगा और दुनिया में इसका नाम होगा। मोहनदास की बहन कान्ही का विवाह सालासर ग्राम में हुआ था। एकमात्र पुत्र उदय के जन्म के कुछ समय पश्चात् ही वह विधवा हो गई।
मोहनदास जी अपनी बहन और भांजे को सहारा देने की गरज से सालासर आकर उनके साथ रहने लगे। उनकी मेहनत से कान्ही के खेत सोना उगलने लगे। अभाव के बादल छंट गए और उनके घर हर याचक को आश्रय मिलने लगा। भांजा उदय भी बडा हो गया था, उसका विवाह कर दिया गया। एक दिन मामा-भांजे खेत में कृषि कार्य कर रहे थे, तभी मोहनदास के हाथ से किसी ने गंडासा छीनकर दूर फेंक दिया। मोहनदास पुन: गंडासा उठा लाए और कार्य में लग गए, लेकिन पुन: किसी ने गंडासा छीनकर दूर फेंक दिया। ऐसा कई बार हुआ। उदय दूर से सब देख रहा था, वह निकट आया और मामा को कुछ देर आराम करने की सलाह दी, लेकिन मोहनदास जी ने कहा कि कोई उनके हाथ से जबरन गंडासा छीन कर फेंक रहा है। सायं को उदय ने अपनी मां कान्ही से इस बात की चर्चा की। कान्ही ने सोचा कि भाई का विवाह करवा देते हैं, फिर सब ठीक हो जाएगा। यह बात मोहनदास को ज्ञात हुई तो उन्होंने कहा कि जिस लडक़ी से मेरे विवाह की बात चलाओगी, उसकी मृत्यु हो जाएगी। और वास्तव में ऐसा ही हुआ। जिस कन्या से मोहनदास के विवाह की बात चल रही थी, वह अचानक ही मृत्यु को प्राप्त हो गई। इसके बाद कान्ही ने भाई पर विवाह के लिए दबाव नहीं डाला। मोहनदास जी ने ब्रह्मचर्य व्रत धारण किया और भजन-कीर्तन में समय व्यतीत करने लगे।
एक दिन कान्ही, भाई और पुत्र को भोजन करा रही थी, तभी द्वार पर किसी याचक ने भिक्षा मांगी। कान्ही को जाने में कुछ देर हो गई। वह पहुंची तो उसे एक परछाई मात्र दृष्टिगोचर हुई। पीछे-पीछे मोहनदास जी भी दौडे अाए थे, उन्हें सच्चाई ज्ञात थी कि वह तो स्वयं बालाजी थे। कान्ही को अपने विलम्ब पर बहुत पश्चाताप हुआ। वह मोहनदास जी से बालाजी के दर्शन कराने का आग्रह करने लगी। मोहनदास जी ने उन्हें धैर्य रखने की सलाह दी।
लगभग डेढ-दो माह पश्चात किसी साधु ने पुन: नारायण हरि, नारायण हरि का उच्चारण किया, जिसे सुन कान्ही दौडी-दौडी मोहनदास जी के पास गई। मोहनदास द्वार पर पहुंचे तो क्या देखते हैं कि वह साधु-वेशधारी बालाजी ही थे, जो अब तक वापस हो लिए थे। मोहनदास तेजी से उनके पीछे दौड़े और उनके चरणों में लेट गए तथा विलम्ब के लिए क्षमा याचना करने लगे। तब बालाजी वास्तविक रूप में प्रकट हुए और बोले- मैं जानता हूं मोहनदास, तुम सच्चे मन से सदैव मुझे जपते हो। तुम्हारी निश्चल भक्ति से मैं बहुत प्रसन्न हूं। मैं तुम्हारी हर मनोकामना पूर्ण करूंगा, बोलो।
मोहदनास जी विनयपूर्वक बोले- आप मेरी बहन कान्ही को दर्शन दीजिए। भक्त वत्सल बालाजी ने आग्रह स्वीकार कर लिया और कहा- मैं पवित्र आसन पर विराजूंगा और मिश्री सहित खीर व चूरमे का भोग स्वीकार करूंगा। भक्त शिरोमणि मोहनदास सप्रेम बालाजी को अपने घर ले लाए और बहन-भाई ने आदर सहित अत्यन्त कृतज्ञता से उन्हें मनपसंद भोजन कराया। सुंदर और स्वच्छ शैय्या पर विश्राम के पश्चात् भाई-बहन की निश्छल सेवा भक्ति से प्रसन्न हो बालाजी ने कहा कि कोई भी मेरी छाया को अपने ऊपर करने की चेष्टा नहीं करेगा। श्रद्धा सहित जो भी भेंट की जाएगी, मैं उसे प्रेमपूर्वक ग्रहण करूंगा और अपने भक्त की हर मनोकामना पूर्ण करूंगा एवं इस सालासर स्थान पर सदैव निवास करूंगा। ऐसा कह बालाजी अंतर्ध्यान हो गए और भक्त भाई-बहन कृत कृत्य हो उठे।
इसके बाद से मोहनदास जी एकान्त में एक शमी के वृक्ष के नीचे आसन लगाकर बैठ गए। उन्होंने मौन व्रत धारण कर लिया। लोग उन्हें पागल समझ बावलिया नाम से पुकारने लगे। एक दिन मोहनदास शमी वृक्ष के नीचे बैठे धूनी रमाए तपस्या कर रहे थे कि एकाएक वह वृक्ष फलों से लद गया। एक जाट पुत्र फल तोडने के लिए उसी शमी वृक्ष पर चढा तो घबराहट में कुछ फल मोहनदास जी पर आ गिरे। उन्होंने सोचा वृक्ष से गिरकर कहीं कोई पक्षी घायल न हो गया हो, लेकिन आंखें खोलीं तो जाट पुत्र को वृक्ष पर चढे पाया। जाट पुत्र भय से कांप उठा था। मोहनदास जी ने उसे भय मुक्त किया और नीचे आने को कहा।
नीचे आने पर जाट पुत्र ने बताया कि मां के मना करने पर भी पिता ने उसे शमी फल लाने की आज्ञा दी और कहा कि वह पागल बावलिया तुझे खा थोडे ही जाएगा। तब बाबा मोहनदास जी ने कहा कि अपने पिता से कहना कि इन फलों को खाने वाला व्यक्ति जीवित नहीं रह सकता। लेकिन जाट ने बाबा की बात को खिल्ली में उडा दिया। कहते हैं कि फल खाते ही जाट की मृत्यु हो गई। तब से लोगों के मन में बाबा मोहनदास के प्रति भक्ति भाव का बीज अंकुरित हुआ, जो आगे की अनेक चमत्कारिक घटनाओं के बाद वृक्ष बनता चला गया।
एक बार भांजे उदय ने देखा कि बाबा के शरीर पर पंजों के बडे-बडे निशान हैं। उसने पूछा तो बाबा टाल गए। बाद में ज्ञात हुआ कि बाबा मोहनदास और बालाजी प्राय: मल्लयुद्ध व अन्य तरह की क्रीडाएं करते थे और बालाजी का साया सदैव बाबा मोहनदास जी के साथ रहता था। इस तरह की घटनाओं से बाबा मोहनदास की कीर्ति दूर पास के ग्रामों में फैलती चली गई। लोग उनके दर्शन को आने लगे।
तत्कालीन सालासर बीकानेर राज्य के अधीन था। उन दिनों ग्रामों का शासन ठाकुरों के हाथ में था। सालासर व उसके निकटवर्ती अनेक ग्रामों की देखरेख का जिम्मा शोभासर के ठाकुर धीरज सिंह के पास था। एक दिन उन्हें खबर मिली कि डाकुओं का एक विशाल जत्था लूटपाट के लिए उस ओर बढा चला आ रहा है। उनके पास इतना भी वक्त नहीं था कि बीकानेर से सैन्य सहायता मंगवा सकते। अंतत: सालासर के ठाकुर सालम सिंह की सलाह पर दोनों, बाबा मोहनदास की शरण में पहुंचे और मदद की गुहार की।
बाबा ने उन्हें आश्वस्त किया और कहा कि बालाजी का नाम लेकर डाकुओं की पताका को उडा देना, क्योंकि विजय पताका ही किसी भी सेना की शक्ति होती है। ठाकुरों ने वैसा ही किया। बालाजी का नाम लिया और डाकुओं की पताका को तलवार से उडा दिया। डाकू सरदार उनके चरणों में आ गिरा। इस तरह मोहनदास जी के प्रति दोनों की श्रद्धा बलवती होती चली गई। बाबा मोहनदास ने उसी पल वहां बालाजी का एक भव्य मंदिर बनवाने का संकल्प किया। सालम सिंह ने भी मंदिर निर्माण में पूर्ण सहयोग देने का निश्चय किया और आसोटा निवासी अपने ससुर चम्पावत को बालाजी की मूर्ति भेजने का संदेश प्रेषित करवाया। यह घटना सन 1754 की है।
इधर, आसोटा ग्राम में एक किसान ब्रह्ममुहूर्त में अपना खेत जोत रहा था। एकाएक हल का फल किसी वस्तु से टकराया। उसने खोदकर देखा तो वहां एक मूर्ति निकली। उसने मूर्ति को निकालकर एक ओर रख दिया और प्रमोदवश उसकी ओर कोई ध्यान नहीं दिया। वह पुन: अपने काम में जुट गया। एकाएक उसके पेट में तीव्र दर्द उठा और वह वहां गिरकर छटपटाने लगा। उसकी पत्नी दौडी-दौडी अाई। किसान ने दर्द से कराहते हुए प्रस्तर प्रतिमा निकालने और पेट में तीव्र दर्द होने की बात बताई।
कृषक पत्नी बुद्धिमती थी। वह प्रतिमा के निकट पहुंची और आदरपूर्वक अपने आंचल से उसकी मिट्टी साफ की तो वहां राम-लक्ष्मण को कंधे पर लिए वीर हनुमान की दिव्य झांकी के दर्शन हुए। काले पत्थर की उस प्रतिमा को उसने एक पेड क़े निकट स्थापित किया और यथाशक्ति प्रसाद चढाकर, अपराध क्षमा की प्रार्थना की। तभी मानो चमत्कार हुआ, वह किसान स्वस्थ हो उठ खडा हुआ।
इस चमत्कार की खबर आग की तरह सारे गांव में फैल गई। आसोटा के ठाकुर चम्पावत भी दर्शन को आए और उस मूर्ति को अपनी हवेली में ले गए। उसी रात ठाकुर को बालाजी ने स्वप्न में दर्शन दिए और मूर्ति को सालासर पहुंचाने की आज्ञा दी। प्रात: ठाकुर चम्पावत ने अपने कर्मचारियों की सुरक्षा में भजन-मंडली के साथ सजी-धजी बैलगाडी में मूर्ति को सालासर की ओर विदा कर दिया। उसी रात भक्त शिरोमणि मोहनदास जी को भी बालाजी ने दर्शन दिए और कहा कि मैं अपना वचन निभाने के लिए काले पत्थर की मूर्ति के रूप में आ रहा हूं। प्रात: ठाकुर सालम सिंह व अनेक ग्रामवासियों ने बाबा मोहनदास जी के साथ मूर्ति का स्वागत किया और सन 1754 में शुक्ल नवमी को शनिवार के दिन पूर्ण विधि-विधान से हनुमान जी की मूर्ति की स्थापना की गई।
श्रावण द्वादशी मंगलवार को भक्त शिरोमणि मोहनदास जी भगवत् भजन में इतने लीन हो गए कि उन्होंने घी और सिंदूर से मूर्ति को पूर्णत: श्रृंगारित कर दिया और उन्हें कुछ ज्ञात भी नहीं हुआ। उस समय बालाजी का पूर्व दर्शित रूप जिसमें वह श्रीराम और लक्ष्मण को कंधे पर धारण किए थे, अदृश्य हो गया। उसके स्थान पर दाढी-मूंछें, मस्तक पर तिलक, विकट भौंहें, सुंदर आंखें, पर्वत पर गदा धारण किए अद्भुत रूप के दर्शन होने लगे।
इसके बाद शनै:-शनै: मंदिर का विकास कार्य प्रगति के पथ पर बढता चला गया।
मोहनदास जी अपनी बहन और भांजे को सहारा देने की गरज से सालासर आकर उनके साथ रहने लगे। उनकी मेहनत से कान्ही के खेत सोना उगलने लगे। अभाव के बादल छंट गए और उनके घर हर याचक को आश्रय मिलने लगा। भांजा उदय भी बडा हो गया था, उसका विवाह कर दिया गया। एक दिन मामा-भांजे खेत में कृषि कार्य कर रहे थे, तभी मोहनदास के हाथ से किसी ने गंडासा छीनकर दूर फेंक दिया। मोहनदास पुन: गंडासा उठा लाए और कार्य में लग गए, लेकिन पुन: किसी ने गंडासा छीनकर दूर फेंक दिया। ऐसा कई बार हुआ। उदय दूर से सब देख रहा था, वह निकट आया और मामा को कुछ देर आराम करने की सलाह दी, लेकिन मोहनदास जी ने कहा कि कोई उनके हाथ से जबरन गंडासा छीन कर फेंक रहा है। सायं को उदय ने अपनी मां कान्ही से इस बात की चर्चा की। कान्ही ने सोचा कि भाई का विवाह करवा देते हैं, फिर सब ठीक हो जाएगा। यह बात मोहनदास को ज्ञात हुई तो उन्होंने कहा कि जिस लडक़ी से मेरे विवाह की बात चलाओगी, उसकी मृत्यु हो जाएगी। और वास्तव में ऐसा ही हुआ। जिस कन्या से मोहनदास के विवाह की बात चल रही थी, वह अचानक ही मृत्यु को प्राप्त हो गई। इसके बाद कान्ही ने भाई पर विवाह के लिए दबाव नहीं डाला। मोहनदास जी ने ब्रह्मचर्य व्रत धारण किया और भजन-कीर्तन में समय व्यतीत करने लगे।
एक दिन कान्ही, भाई और पुत्र को भोजन करा रही थी, तभी द्वार पर किसी याचक ने भिक्षा मांगी। कान्ही को जाने में कुछ देर हो गई। वह पहुंची तो उसे एक परछाई मात्र दृष्टिगोचर हुई। पीछे-पीछे मोहनदास जी भी दौडे अाए थे, उन्हें सच्चाई ज्ञात थी कि वह तो स्वयं बालाजी थे। कान्ही को अपने विलम्ब पर बहुत पश्चाताप हुआ। वह मोहनदास जी से बालाजी के दर्शन कराने का आग्रह करने लगी। मोहनदास जी ने उन्हें धैर्य रखने की सलाह दी।
लगभग डेढ-दो माह पश्चात किसी साधु ने पुन: नारायण हरि, नारायण हरि का उच्चारण किया, जिसे सुन कान्ही दौडी-दौडी मोहनदास जी के पास गई। मोहनदास द्वार पर पहुंचे तो क्या देखते हैं कि वह साधु-वेशधारी बालाजी ही थे, जो अब तक वापस हो लिए थे। मोहनदास तेजी से उनके पीछे दौड़े और उनके चरणों में लेट गए तथा विलम्ब के लिए क्षमा याचना करने लगे। तब बालाजी वास्तविक रूप में प्रकट हुए और बोले- मैं जानता हूं मोहनदास, तुम सच्चे मन से सदैव मुझे जपते हो। तुम्हारी निश्चल भक्ति से मैं बहुत प्रसन्न हूं। मैं तुम्हारी हर मनोकामना पूर्ण करूंगा, बोलो।
मोहदनास जी विनयपूर्वक बोले- आप मेरी बहन कान्ही को दर्शन दीजिए। भक्त वत्सल बालाजी ने आग्रह स्वीकार कर लिया और कहा- मैं पवित्र आसन पर विराजूंगा और मिश्री सहित खीर व चूरमे का भोग स्वीकार करूंगा। भक्त शिरोमणि मोहनदास सप्रेम बालाजी को अपने घर ले लाए और बहन-भाई ने आदर सहित अत्यन्त कृतज्ञता से उन्हें मनपसंद भोजन कराया। सुंदर और स्वच्छ शैय्या पर विश्राम के पश्चात् भाई-बहन की निश्छल सेवा भक्ति से प्रसन्न हो बालाजी ने कहा कि कोई भी मेरी छाया को अपने ऊपर करने की चेष्टा नहीं करेगा। श्रद्धा सहित जो भी भेंट की जाएगी, मैं उसे प्रेमपूर्वक ग्रहण करूंगा और अपने भक्त की हर मनोकामना पूर्ण करूंगा एवं इस सालासर स्थान पर सदैव निवास करूंगा। ऐसा कह बालाजी अंतर्ध्यान हो गए और भक्त भाई-बहन कृत कृत्य हो उठे।
इसके बाद से मोहनदास जी एकान्त में एक शमी के वृक्ष के नीचे आसन लगाकर बैठ गए। उन्होंने मौन व्रत धारण कर लिया। लोग उन्हें पागल समझ बावलिया नाम से पुकारने लगे। एक दिन मोहनदास शमी वृक्ष के नीचे बैठे धूनी रमाए तपस्या कर रहे थे कि एकाएक वह वृक्ष फलों से लद गया। एक जाट पुत्र फल तोडने के लिए उसी शमी वृक्ष पर चढा तो घबराहट में कुछ फल मोहनदास जी पर आ गिरे। उन्होंने सोचा वृक्ष से गिरकर कहीं कोई पक्षी घायल न हो गया हो, लेकिन आंखें खोलीं तो जाट पुत्र को वृक्ष पर चढे पाया। जाट पुत्र भय से कांप उठा था। मोहनदास जी ने उसे भय मुक्त किया और नीचे आने को कहा।
नीचे आने पर जाट पुत्र ने बताया कि मां के मना करने पर भी पिता ने उसे शमी फल लाने की आज्ञा दी और कहा कि वह पागल बावलिया तुझे खा थोडे ही जाएगा। तब बाबा मोहनदास जी ने कहा कि अपने पिता से कहना कि इन फलों को खाने वाला व्यक्ति जीवित नहीं रह सकता। लेकिन जाट ने बाबा की बात को खिल्ली में उडा दिया। कहते हैं कि फल खाते ही जाट की मृत्यु हो गई। तब से लोगों के मन में बाबा मोहनदास के प्रति भक्ति भाव का बीज अंकुरित हुआ, जो आगे की अनेक चमत्कारिक घटनाओं के बाद वृक्ष बनता चला गया।
एक बार भांजे उदय ने देखा कि बाबा के शरीर पर पंजों के बडे-बडे निशान हैं। उसने पूछा तो बाबा टाल गए। बाद में ज्ञात हुआ कि बाबा मोहनदास और बालाजी प्राय: मल्लयुद्ध व अन्य तरह की क्रीडाएं करते थे और बालाजी का साया सदैव बाबा मोहनदास जी के साथ रहता था। इस तरह की घटनाओं से बाबा मोहनदास की कीर्ति दूर पास के ग्रामों में फैलती चली गई। लोग उनके दर्शन को आने लगे।
तत्कालीन सालासर बीकानेर राज्य के अधीन था। उन दिनों ग्रामों का शासन ठाकुरों के हाथ में था। सालासर व उसके निकटवर्ती अनेक ग्रामों की देखरेख का जिम्मा शोभासर के ठाकुर धीरज सिंह के पास था। एक दिन उन्हें खबर मिली कि डाकुओं का एक विशाल जत्था लूटपाट के लिए उस ओर बढा चला आ रहा है। उनके पास इतना भी वक्त नहीं था कि बीकानेर से सैन्य सहायता मंगवा सकते। अंतत: सालासर के ठाकुर सालम सिंह की सलाह पर दोनों, बाबा मोहनदास की शरण में पहुंचे और मदद की गुहार की।
बाबा ने उन्हें आश्वस्त किया और कहा कि बालाजी का नाम लेकर डाकुओं की पताका को उडा देना, क्योंकि विजय पताका ही किसी भी सेना की शक्ति होती है। ठाकुरों ने वैसा ही किया। बालाजी का नाम लिया और डाकुओं की पताका को तलवार से उडा दिया। डाकू सरदार उनके चरणों में आ गिरा। इस तरह मोहनदास जी के प्रति दोनों की श्रद्धा बलवती होती चली गई। बाबा मोहनदास ने उसी पल वहां बालाजी का एक भव्य मंदिर बनवाने का संकल्प किया। सालम सिंह ने भी मंदिर निर्माण में पूर्ण सहयोग देने का निश्चय किया और आसोटा निवासी अपने ससुर चम्पावत को बालाजी की मूर्ति भेजने का संदेश प्रेषित करवाया। यह घटना सन 1754 की है।
इधर, आसोटा ग्राम में एक किसान ब्रह्ममुहूर्त में अपना खेत जोत रहा था। एकाएक हल का फल किसी वस्तु से टकराया। उसने खोदकर देखा तो वहां एक मूर्ति निकली। उसने मूर्ति को निकालकर एक ओर रख दिया और प्रमोदवश उसकी ओर कोई ध्यान नहीं दिया। वह पुन: अपने काम में जुट गया। एकाएक उसके पेट में तीव्र दर्द उठा और वह वहां गिरकर छटपटाने लगा। उसकी पत्नी दौडी-दौडी अाई। किसान ने दर्द से कराहते हुए प्रस्तर प्रतिमा निकालने और पेट में तीव्र दर्द होने की बात बताई।
कृषक पत्नी बुद्धिमती थी। वह प्रतिमा के निकट पहुंची और आदरपूर्वक अपने आंचल से उसकी मिट्टी साफ की तो वहां राम-लक्ष्मण को कंधे पर लिए वीर हनुमान की दिव्य झांकी के दर्शन हुए। काले पत्थर की उस प्रतिमा को उसने एक पेड क़े निकट स्थापित किया और यथाशक्ति प्रसाद चढाकर, अपराध क्षमा की प्रार्थना की। तभी मानो चमत्कार हुआ, वह किसान स्वस्थ हो उठ खडा हुआ।
इस चमत्कार की खबर आग की तरह सारे गांव में फैल गई। आसोटा के ठाकुर चम्पावत भी दर्शन को आए और उस मूर्ति को अपनी हवेली में ले गए। उसी रात ठाकुर को बालाजी ने स्वप्न में दर्शन दिए और मूर्ति को सालासर पहुंचाने की आज्ञा दी। प्रात: ठाकुर चम्पावत ने अपने कर्मचारियों की सुरक्षा में भजन-मंडली के साथ सजी-धजी बैलगाडी में मूर्ति को सालासर की ओर विदा कर दिया। उसी रात भक्त शिरोमणि मोहनदास जी को भी बालाजी ने दर्शन दिए और कहा कि मैं अपना वचन निभाने के लिए काले पत्थर की मूर्ति के रूप में आ रहा हूं। प्रात: ठाकुर सालम सिंह व अनेक ग्रामवासियों ने बाबा मोहनदास जी के साथ मूर्ति का स्वागत किया और सन 1754 में शुक्ल नवमी को शनिवार के दिन पूर्ण विधि-विधान से हनुमान जी की मूर्ति की स्थापना की गई।
श्रावण द्वादशी मंगलवार को भक्त शिरोमणि मोहनदास जी भगवत् भजन में इतने लीन हो गए कि उन्होंने घी और सिंदूर से मूर्ति को पूर्णत: श्रृंगारित कर दिया और उन्हें कुछ ज्ञात भी नहीं हुआ। उस समय बालाजी का पूर्व दर्शित रूप जिसमें वह श्रीराम और लक्ष्मण को कंधे पर धारण किए थे, अदृश्य हो गया। उसके स्थान पर दाढी-मूंछें, मस्तक पर तिलक, विकट भौंहें, सुंदर आंखें, पर्वत पर गदा धारण किए अद्भुत रूप के दर्शन होने लगे।
इसके बाद शनै:-शनै: मंदिर का विकास कार्य प्रगति के पथ पर बढता चला गया।